राम-नाम-महिमा-9
(107)
मेरें जाति -पाँति न चहौं काहूकी जाति-पाँति,
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको ।
लोक परलोकु रघुनाथही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसीके एक नामको।
अति ही अयाने उपखानो नहिं बूझै लोग,
‘साह ही को गोतु होत हे गुलामको।।
साध्ुा कै असाधु , कै भलो कै पोच’, सोचु कहा,
का काहूके ,द्वार परौं? जो हौं रामको।।
(108)
कोउ कहै , करत कुसाज, दगाबाज बड़ो,
कोऊ कहै रामको गुलामु खरो खूब है।
साधु जानैं महासाधु , खल जानैं महाखल,
बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है।
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू ,
सबकी सहत , उर अंतर न ऊब है।
तुलसी को भलो पोच हाथ रधुनाथही के,
रामकी भगति-भूमि मेरी मति दूब है।।