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रार और दाँती / केदारनाथ अग्रवाल

हाथों में लिखी हुई
‘कटा जुज्झ’ रेखा है
‘रार’ और ‘दाँती’ में
विराम नहीं देखा है
खोपड़ों पर
लट्ठ
और जमीन पर
लठैत चलते हैं
त्रासदी के
अलाव
गाँव-गाँव में
जलते हैं।
सिर पर
सवार है खून
धारियों में बहता
पैर तक पहुँचता
मौत का दुआर
अब जीवन में
जगह-जगह देख लिया
खुलता है।

यह कविता ०९.०४.१९७० को लिखी ‘खोपड़ों पर लट्ठ’ का विस्तार है।
रचनाकाल: २०-११-१९७०