एक थानेदार ने
डाला था
एक अबला की चोली में हाथ
और
सुलाया था
अपनी ही मां के बदन पर
उसके जवान बेटे को
मगर
उस दिन
दफ्तर मे न छुट्टी थी
न नियंताओं को चिंता।
मैं लाख चाहकर भी
नहीं मना गया
राष्ट्रीय शोक।
एक थानेदार ने
डाला था
एक अबला की चोली में हाथ
और
सुलाया था
अपनी ही मां के बदन पर
उसके जवान बेटे को
मगर
उस दिन
दफ्तर मे न छुट्टी थी
न नियंताओं को चिंता।
मैं लाख चाहकर भी
नहीं मना गया
राष्ट्रीय शोक।