एक गुमशुदा बालक
इस बीहड़ में
तलाश रहा है
अपने घर का रास्ता
उतरता
चट्टानी घुमावों में
भटकता
टीला-दर-टीला
भागता
शिखर-दर-शिखर
एकाएक
सरकते हैं
अहल चट्टानी पत्थर
दरकते हैं
कठोर बूढ़ॆ पहाड़
टूट निकलती है
नर्म जोगिया मिट्टी
बनकर लहरों-सी तरल
बिछ जाती है
अनंत-अनंत विस्तारों पर
ठीक उसी समय
खिल-खिल बजती हैं
मंदिर की घंटियां
और रास्ता ढूंढता एक बच्चा
चकित
भ्रमित जाता है ठिठक
भूगोल भी कोई जादू है क्या ?
सच,कितने कोमल हैं पहाड़
कितनी तरल हैं चट्टानें
कितनी उर्वरा है धरती