भई, मानो-न-मानो-
हमें तो यह जमीं रास आ गई!
ठीक है कि यहाँ युद्ध है, रक्त है, शस्त्र है, तीर है
लू है, लपट है, नक्शे की लकीर है,
पर यहीं तो एक-दूसरे को आगोश में भरने की इन्सानी चाहें हैं,
झड़बेरियों में हरियाली राहें हैं।
मेहनतकश साँवली देह पर मोती-सा पसीना है-
बड़े इतमिनान जैसे फैले गहरे नीले आसमान में
चाँद-सूरज का नगीना है।
चाँदनी है, हमदर्दी है; इन्सानी जजबात हैं-
अहा, यहाँ की क्या बात है!
सोने का सुमेरु, अप्सरा, कल्पवृक्ष और कामधेनु-
इनके बारे में बहुत कुछ सुना है,
बुनने वाले ने किस्सा तो
अच्छा ही बुना है!
पर क्या कहूँ-आज तो यह जमीन ही हकीकत है
चार दिन वाली ही सही, पर यह जिन्दगी ही हकीकत है।
जो कुछ कहो, हमें तो यह जमीं, यह जिंदगी रास आ गई
लगता है-जैसे,
लहर के छोटे से गीत-गाते तरल क्षण में
आकाश की सारी विभूति-
घर-बैठे ही पास आ गई!
1890