रास की मुरली
अभी तक कर पाई न सिंगार
रास की मुरली उठी पुकार।
[१]
गई सहसा किस रस से भींग
वकुल-वन में कोकिल की तान?
चाँदनी में उमड़ी सब ओर
कहाँ के मद की मधुर उफान?
गिरा चाहता भूमि पर इन्दु
शिथिलवसना रजनी के संग;
सिहरते पग सकता न सँभाल
कुसुम-कलियों पर स्वयं अनंग!
ठगी-सी रुकी नयन के पास
लिए अंजन उँगली सुकुमार,
अचानक लगे नाचने मर्म,
रास की मुरली उठी पुकार।
[२]
रास की मुरली उठी पुकार।
साँझ तक तो पल गिनती रही,
कहीं तब डूब सका दिनमान;
आँजने जिस क्षण बैठी आँख,
मधुर वेला पहुँची वह आन।
सुहागिनियों में चुनकर एक
मुझे ही भूल गए क्या श्याम?
बुलाने को न बजाया आज
बाँसुरी में दुखिया का नाम।
बिताऊँ आज रैन किस भाँति?
पिन्हाऊँ किसे यूथिका-हार?
धरूँ कैसे घर बैठे धीर?
रास की मुरली उठी पुकार।
[३]
रास की मुरली उठी पुकार।
उठ उस में कोमल हिल्लोल
मोहिनी मुरली का सुन नाद,
लगा करने कैसे तो हृदय,
पड़ी, जानें, कैसी कुछ याद!
सकूँगी कैसे स्वयं सँभाल
तरंगित यौवन का रसवाह?
ग्रन्थि के ढोले कर सब बन्ध
नाचने को आकुल है चाह।
डोलती श्लथ कटि-पट के संग,
खुली रशना करती झन्कार,
न दे पाई कङ्कन में कील,
रास की मुरली उठी पुकार।
[४]
साज-शृंगार?
छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार,
रास की मुरली उठी पुकार।
अरी भोली मानिनि! इस रात
विनय-आदर का नहीं विधान,
अनामंत्रित अर्पण कर देह
पूर्ण करना होगा बलिदान।
आज द्रोही जीवन का पर्व,
नग्न उल्लासों का त्यौहार;
आज केवल भावों का लग्न,
आज निष्फल सारे शृंगार।
अलक्तक-पद का आज न श्रेय,
न कुंकुम की बेंदी अभिराम,
न सोहेगा अधरों में राग,
लोचनों में अंजन घनश्याम।
हृदय का संचित रंग उँडेल
सजा नयनों में अनुपम राग,
भींगकर नख-शिख तक सुकुमारि,
आज कर लो निज सुफल सुहाग।
पहन कर केवल मादक रूप
किरण-वसना परियों-सी नग्न,
नीलिमा में हो जाओ बाल,
तारिकामयी प्रकृति-सी मग्न।
यूथिका के ये फूल बिखेर
पुजारिन! बनो स्वयं उपहार,
पिन्हा बाँहों के मृदुल मृणाल
देवता की ग्रीवा का हार।
खोल बाँहें आलिंगन-हेतु
खड़ा संगम पर प्राणाधार;
तुम्हें कङ्कन-कुंकुम का मोह,
और यह मुरली रही पुकार।
[५]
रास की मुरली उठी पुकार।
महालय का यह मंगल-काल,
आज भी लज्जा का व्यवधान?
तुम्हें तनु पर यदि नहीं प्रतीति,
भेज दो अपने आकुल प्रान।
कहीं हो गया द्विधा में शेष
आज मोहन का मादक रास,
सफल होगा फिर कब सुकुमारि!
तुम्हारे यौवन का मधुमास?
रही बज आमन्त्रण के राग
श्याम की मुरली नित्य-नवीन,
विकल-सी दौड़-दौड़ प्रतिकाल
सरित हो रही सिन्धु में लीन।
रहा उड़ तज फेनिल अस्तित्व
रूप पल-पल अरूप की ओर,
तीव्र होता ज्यों-ज्यों जयनाद,
बढ़ा जाता मुरली का रोर।
सनातन महानन्द में आज
बाँसुरी-कङ्कन एकाकार,
बहा जा रहा अचेतन विश्व,
रास की मुरली रही पुकार।