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राही / जितेंद्र मोहन पंत

जब मैं
पीछे मुड़कर देखता हूं
न जाने क्यों ?
देखता ही रह जाता हूं।
अतीत की देह पर
विछोह के दहकते हुए शोलों को
थककर चूर होकर
थम से बैठ जाता हूं।
होश में आकर दोनों हाथों से
आंखें अपनी पोंछता हूं
नजरें फेरकर डग भरते हुए
खंडहर मंजिल में झांकता हूं।