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राही / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

एक राही बढ़ रहा है
फूल हैं पथ पर बिछे या
शूल मुॅंह खोले खड़े हों।
मुक्त पथ आगे बढ़ें या
रोक कर भूधर अड़े हों।
शृंग पर दृढ़ चरण दर वह
सत्य ऊॅंचा चढ़ रहा है
एक राही बढ़ रहा है।
पूर्णिमा की ज्योति हो या
अमाॅं का अंजन नयन में।
दूब पर पग पड़ रहे या
चल रहा है सघन वन में।
विहॅंस शत अवरोध से वह
नित अकेला लड़ रहा है।
एक राही बढ़ रहा है।