साँझ के उस पार सो गया ईश्वर भिखारी की तरह,
अब कोई नहीं है इस सूनेपन में रात को ढाढ़स बँधाने वाला,
कैसा यह विषाद, कैसी यंत्रणा - अनाम, अनन्त !
है ही नहीं कोई नियम-कायदा
समय के हृदय में जिसे पकड़कर बैठें।
केवल भूख से अपंग आदमी लोटे पड़े हैं
ईश्वर से भीख माँगने वाले पापियों के पाँवों में,
गई सदी में ही बन्द हुआ स्वर्ग का भंगुर द्वार,
कौन महात्मा इसका ताला खोलेगा, कौन?
कौन सुनता है नीरव अन्धकार की छाती से निकली रात की आह,
सपना देख एक दूसरे के पास खिसक आते हैं नर-नारी, मृत्युमुखी,
सदियों की सदियाँ बह गईं आदमी के आँसू पोछते,
शून्य में आसन डाल ईश्वर हाथ फैलाता है अनित्य जग के सामने,
दु:ख मुझे दे दो, दो मुझे, एक बार पुण्य सरिता में उतर आऊँ,
उठ आएँ लोग मेरे मन्दिर नामक खण्डहर से।
राह छोड़ जाती रात नीरवता को चुप कराती है,
एक अकेली चिड़िया मृत्यु के उस पार उचककर देखती है।
समीर ताँती की कविता : बाट एरा राति जाय [ বাট এৰা ৰাতি যায় ] का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित