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रिक्त जाल / संतोष श्रीवास्तव

मछुआरे का जाल
आज रिक्त है
पूरनमासी का चाँद
खिला है आकाश में
समुद्री ज्वार की लहरों पर
डगमगा रही है नौका

मछुआरा रिक्त जाल को
आसमान में
तान देना चाहता है
कुछ तारे ,थोड़ी-सी रोशनी
अपने हिस्से कर लेना चाहता है
पर वहाँ भी
कई प्रकाशवर्ष पहले
टूटे तारों के टुकड़े हैं
रोशनी का दर्द है

जाल को कंधे पर ढोता
वह लौटा है झोपड़े में
वह ठंडे चूल्हे से
नज़रें नहीं मिला पाता
न ही पत्नी से
जो घुटने मोड़े
वही लुढ़क गई है
जहाँ उसने जलाई थीं
धूपबत्तियाँ गणपति वंदना में
जाल के भरे होने की कामना में
उसके समंदर में जाने से पहले

कथड़ी में अपने बच्चों की
बेनूर आँखों के
सुलगते सवाल से
वह सिहर उठा है
सब कुछ आर -पार
दिखाई देने लगा है
जाल की तरह
रिक्त ज़िन्दगी का
विकृत सच

अब उसके पास
न जिव्हा है न दाँत
जिव्हा और दाँतविहीन मुख से
उदर पूर्ति असंभव है

वह अपने बच्चों के
मुँह टटोल रहा है
उनके गाल से गाल सटा कर
आश्वस्ति को दरकिनार कर
एक शापित सच को धारे
वह भूख का धर्म निभा रहा है
रिक्त जाल पर
खुद को समेट कर