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रिटायर्ड / सजीव सारथी

जब मैं जवान था,
हरा था, भरपूर था,
तब हवा मुझे झुलाती थी,
मैं झूम के लहराता था,
मगर उन जर्रों से मुझे,
हमेशा ही रश्क होता था,
जो हवा के पंखों पर बैठकर,
जाने कहाँ से आते थे,
कहाँ को जाते थे,
वो मुझे कई किस्से सुनते थे,
देस परदेस के...

पतझर आया,
मेरा रंग भी पीला पड़ा,
जब शाख से टूटा तो लगा,
जैसे सब खत्म हो गया,
मगर जर्रों ने मुझे थाम लिया,
अब मैं आज़ाद हूँ,
अब मुझे भी हवा,
अपने पंखों पर बिठाकर,
कहीं दूर ले जायेगी....