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रिश्ता और रेगिस्तान / अश्वनी शर्मा

रिश्ता एक खेजड़ी है
जो चाहे छांग दी जाये
कितनी बार
पनप आती है हर बार
दुगुने जोश से
पनप जाता है सब कुछ जिस के साये में।
रिश्ता नहीं होता रोहिड़ा
जो अंगारे से गंधहीन फूल लिये
खिला रहता है बियाबान में
कुछ भी नहीं पनपता जिस के साये में
रिश्ता आक भी नहीं है
जो उड़ा देता है
बीजों को रूई-सा
पूरे माहौल में
चिपचिपे दूध सा चिपक जाता है
अपनी जहरीली तासीर लिये
रेत जानती है रिश्तों को
चिपक जाती है तन पर प्यार से
हट जाती है उतनी ही आसानी से
पूरा मौका देती है
पनपने का खुलने का
रेत हक नहीं जताती
मालिकाना भी नहीं
रेत सिर्फ ढलना जानती है
आप की सहूलियत के अनुसार
रिस जाती है बंद मुट्ठी से भी
बिना किसी शिकायत के
अगर रिसने दिया जाये तो
रेत नहीं जानती
रिश्ते को कोई नाम देना भी
बस एक नामालूम-सी
उपस्थिति बनी रहती है
जेहन से शरीर तक
रिश्ता न जहरीला चिपचिपा दूध है
न अंगार रंग का
गंध रहित फूल
वो है खेजड़ी-सा
जो पनपती है पनपाती है
देती है लूंग, सांगरी
जल लेती है चूल्हे में भी

वो है रेत सा
जो आपकी जिंदगी में
है भी और नहीं भी

रिश्ता जीता है
रेत में खेजड़ी में
रेगिस्तान के आदमी में।