बिसरा दो
रिश्ते रेतीले
मन के पाहुन को
क्या बहकाना,
तुम गढ़ लो कोई
सभ्य बहाना
पल -दो पल
ऐसे भी जी लें।
अनीति-नीति का
मिट रहा अन्तर
पुष्प बनो या
हो जाओ पत्थर ;
अर्थहीन सब
सागर- टीले ।
यदि मुकर गई
नयनों की भाषा
साथ क्या देगी
पंगु अभिलाषा;
बूँद-बूँद पीड़ा-
को पी लें ।
-0--(12-6-1983-बेखटके बालाघाट-जन 86)