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रिश्तों के जाल / सुदर्शन रत्नाकर

मैं फँसी हूँ
रिश्तों के जाल में
जिसके धागों को मैंने स्वयं बाँधा है
अपने रक्त के रेशों से
जिन्हें काट भी नहीं सकती
बाँट भी नहीं सकती।
निकलने की दूर-दूर तक
कोई थाह नहीं
जितनी कोशिश करती हूँ
उतना ही उलझती हूँ
यह उलझन मन की है
जो स्वयं ही बँधता है
और स्वयं ही तड़पता है
रिश्तों के जाल में।
निकलूँ भी तो कैसे
मृगमरीचिका की तरह
ये आगे लिए जाते हैं
टूटते भी नहीं
छूटते भी नहीं
ये तो गहरे और गहरे
होते जाते हैं।