रुई ओंटती वह
झुर्रियों वाला चेहरा
सिकुड़ी हुई चमड़ी
माथे पर चुचवाता पसीना
जाने क्या सोच रही
रुई अलग, बिनौले अलग ।
फ़क्क सफ़ेद रुई के फ़ाहे
उसके दाँत भी तो ऐसे ही दिखते थे
सुन्दर, रुचमुच ।
ठुकवाना चाहती थी वह भी
दाँतों में सोने की कील
हँसना चाहती थी खुलकर ।
हाथों में चलनी ले
चाल कर नदी का बालू
सोने के कण बीनकर
पीना चाहती थी अँजुरी भर ख़ुशी ।
पता चल गया गाँव के मुखिया को
लग गए पहरे।
बह गई खुशियाँ नदी की धार ।
किसे मालूम था —
ग़रीब नहीं बीन सकते ख़ुशियाँ
काटनी पड़ती है उन्हें ग़रीबी की फ़सल ।
रुई ओंटनी है, कातनी है, सूत देना है बुनकर को ।
मोटहा साड़ी पहनने की चाह
बलवती हो उतर आई है आँखों में ।
सोऽऽऽ... सोऽऽऽ... की आवाज़ दे
पटकती है लाठी
मुर्गियों से बचाना है बिनौले को ।
बोना है अगले साल फिर कपास
इकट्ठा करनी है ख़ुशियाँ
रुई का ढेर ।