वह धरती की सबसे करुण संतान है
उसके पैरों की थाप पर
थिरकते हैं पवन, पानी और पत्थर
जूड़े में फ्योंली बुराँस का फूल खोंसे
वह ठोकर पर रखती है
तमाम शहरी वैभव।
भोर उसके दिन का आरंभ नहीं
मध्यांतर है
नीम अंधेरे उठ, सानी पानी निबटा
अपने दुधमुँहों को छोड़
वह चल पड़ती है एक मुट्ठी चावल
और गुड़ साड़ी के छोर से बाँधे।
इसी से आज का कौतुक जगेगा
यही आज का प्रसाद होगा
यही चबैना पा, हँसती-हँसती
दोहरी हो जाएगी वह
सखियों से कोई किस्सा रसीला सुन कर।
उसकी पीठ पर उग आया है भूख का जंगल
उसके मस्तक पर है परिश्रम के स्वेद की आभा
एक रस्सी और दरांती अपनी कमर में बाँधे
रुक्मा काट लाती हैं अपने भार से दोगुना घास
उसके सपनो में उसका फौजी पति नहीं
लकदक पत्तियों से लदे
बांज, गुरियाल, खड़ीक और भीमल के पेड़ आते हैं।
किसी रुआंसी अनगढ़ लोकधुन में
अपने मैत का कोई खुदेड गीत पिरोती रुक्मा
साधारण घसियारिन नहीं
बल्कि कोई 'वन देवी' है
जिसके मनाकाश में है भय का निषेध।
'क ख ग' भी नहीं जानने वाली रुक्मा
इनदिनों गिनाती है मुझे
सौ तरह की जड़ी बूटियों और वन्य जीवों के नाम।
पर्यावरण संरक्षण से अनभिज्ञ रुक्मा
बताती है कि पौधे रोपने से
ईष्ट करते हैं हमारे अतिवाद को क्षमा।
स्वर्ग में बैठे पितर मना लाते हैं
रूठे बादलों को समय पर।
स्वर गम्भीर कर कहती है
" वर्षा होने से ही तो फलेंगे दीदी
चारे वाले पेड़!
उन्ही से तो शांत होगी पशुओं की क्षुधा
और मिलेगा दुधमूहों को दूध " !
मैं उसके भोलेपन पर रीझ-रीझ जाती हूँ
और उसे गले लगा कर कहती हूँ
"ओ पण्डिता रुक्मा" अब कब आएगी?
जल्दी आना!
अगली बार मैं तुझे, तुझ पर लिखी
कविता सुनाना चाहती हूँ