Last modified on 10 मई 2013, at 11:16

रुक्मिणी-सन्देश / ‘हरिऔध’

 
परम रम्य था नगर एक कुण्डिनपुर नामक।
जहाँ राज्य करते थे नृप-कुल-भूषण भीष्मक।
सकल-सम्पदा-सुकृति-धाम था नगर मनोहर।
वहाँ उलहती बेलि नीति की थी अति सुन्दर।1।

एक सुता थी परम-दिव्य उनकी गुणवाली।
रूप-राशि से ढँकी अलौकिक साँचे ढाली।
थी अपूर्व मुख-ज्योति छलकती थी छबि न्यारी।
नाम रुक्मिणी था, वह थी सबकी अति प्यारी।2।

जब विवाह के योग्य हुई यह कन्या सुन्दर।
कलह-बीज-अंकुरित हुआ गृह मधय भयंकर।
नृपति, द्वारकाधीश-कृष्ण को देकर कन्या।
उसे चाहते थे करना अवनी-तल-धन्या।3।

रुक्म नाम का एक पुत्र भूपति-वर का था।
परम क्रूर, क्रोधी महान, वह कुटिल महा था।
सहमत वह नहिं हुआ नृपति से पूर्ण रूप से।
उसने निश्चित किया ब्याह शिशुपाल भूप से।4।

यत: रुक्म था बड़ा उम्र अतिशय हठकारी।
शक्तिमान युवराज, राज्य का भी अधिकारी।
अत: नृपति ने व्यर्थ बखेड़ा नहीं बढ़ाया।
माना उसका कहा यदपि वह उन्हें न भाया।5।

उक्त नृपति के निकट रुक्म ने तिलक पठा कर।
ब्याह कार्य के लिए किया लोगों को तत्पर।
तिथि निश्चित हो गयी बात यह सबने जानी।
आता है ब्याहने चेदि भूपति अभिमानी।6।

विबुधा-बरों, गायकों, विविधा गुणियों के द्वारा।
सुयश, श्रवण करके विचित्र, अनुपम अति प्यारा।
यत: हृदय दे चुकी हाथ में थीं यदुवर के।
अत: व्यथित अति हुई रुक्मिणी यह सुन करके।7।

पर सम्भव था नहीं रुक्म का सीधा होना।
उससे कुछ कहना था निज गौरव का खोना।
अत: हुईं वे गुप्त-भाव से उद्यमशीला।
वृथा न रोयीं, औ न बनाया मुखड़ा पीला।8।

सोचा यदि मैं नीति-निपुण गुण-निधि प्रभुवर को।
परम विज्ञ, करुणा-निधान, यदुवंश-प्रवर को।
सकल हृदय का भाव स्वच्छता से जतलाऊँ।
औ लिख कर सन्देश यहाँ का सकल पठाऊँ।9।

तो अवश्य वे अखिल आपदा को टालेंगे।
मर्यादा निश्चय अपने कुल की पालेंगे।
शमन करेंगे ताप हृदय की व्यथा हरेंगे।
सकल हमारी मनोकामना सफल करेंगे।10।

जी में ऐसा सोच लिख एक पत्र उन्होंने।
जिसके अक्षर आँखों पर करते थे टोने।
अपना आशय प्रकट किया यों सम्मत होकर।
हे करुणाकर प्रणत-पाल, यदुवंश-दिवाकर।11।

मैं न कहूँगी एक नृपति की कन्या हूँ मैं।
मुझे लाज लगती है जो परिचय यों दूँ मैं।
बरन कहूँगी हूँ चकोरिका चन्द-बदन की।
प्रभु मैं हूँ चातकी किसी नव-जलधार तन की।12।

पावन पद-पंकज-पराग की मैं भ्रमरी हूँ।
अतिशय अनुपम-रूप-राशि-पानिप-सफरी हूँ।
मैं कुरंगिनी हूँ पवित्र कल-कंठ नाद की।
मैं समुत्सुका-रसना हूँ प्रभु सुयश-स्वाद की।13।

जैसे देखे बिना रूप भी सौरभ का जन।
हो जाता है सानुराग सब काल सुखित वन।
वैसे ही प्रभु-रूप बिना देखे अति प्यारा।
हुई हृदय से सानुराग हूँ तज भ्रम सारा।14।

सुचरित, सद्गुण, सुकृति, आपकी है, महि-व्यापी।
इन सबने ही प्रभु सुमूर्ति है उर में थापी।
रूप-जनित अनुराग क्षणिक है, अस्थायी है।
रूप गये औ मोह नसे नहिं सुखदायी है।15।

पर सद्गुण-सुचरित्र जनित अनुराग सदा ही।
अचल अटल है अत: वही है अति उर-ग्राही।
सुकर उसी के मैं उमंग के साथ बिकी हूँ।
निश्चल, नीरव, समुद, उसी के द्वार टिकी हूँ।16।

एक मूढ़ जन इस मेरे अनुराग-सोत को।
करके गौरव-हीन प्रशंसित, प्रथित गोत को।
निज इच्छा अनुकूल चाहता है लौटाना।
पर उसने यह भेद नहीं अब लौं प्रभु जाना।17।

कौन फेर सकता प्रवाह है सुर-सरिता का।
रोक कौन सकता है जलनिधि-पथ का नाका।
कौन प्रवाहित कर सकता है यत्नों द्वारा।
पश्चिम दिशि में भानु-नन्दिनी की खर धारा।18।

प्रणय-राज्य में बल-प्रयोग अति कायरता है।
मंगल-मय विवाह में कौशल पामरता है।
जिस परिणय का हृदय-मिलन उद्देश्य नहीं है।
वह अवैध है विधि का उसमें लेश नहीं है।19।

जहाँ परस्पर-प्रेम पताका नहिं लहराती।
वहाँ धवजा है कलह कपट की नित फहराती।
प्रणय-कुसुम में कीट स्वार्थ का जहाँ समाया।
वहाँ हुई सुख और शान्ति की कलुषित काया।20।

यह प्रपंच सब अनमिल ब्याहों से होते हैं।
जो दम्पति-जीवन का अनुपम सुख खोते हैं।
अहह प्रभो ऐसा प्रण क्यों भ्राता ने ठाना।
जिससे दुख में मुझको जीवन पड़े बिताना।21।

अब प्रभु तज नहिं अन्य हमारा है हितकारी।
निरवलम्बिनी हो, मैं आई शरण तुम्हारी।
प्रभु-पद-नख की ज्योति हरेगी तिमिर हमारा।
वही एक अवलम्बन है, है वही सहारा।22।

पवन बिना प्राणी, औ मणि विन फणि, जी जावे।
यह सम्भव है त्राण बिना जल मछली पावे।
है परन्तु यह नहिं कदापि संभव मैं जीऊँ।
जो न प्रभु-कृपा-सुधा यथा-रुचि सादर पीऊँ।23।

तरु हरीतिमा नसे, उड़े बिन पंख पखेरू।
हीरा वन जावे, बहु उज्ज्वल होकर गेरू।
जल शीतलता तजे, त्याग गति करे प्रभंजन।
तदपि न होगा मम विचार में कुछ परिवर्तन।24।

नाथ समर्पित हृदय अन्य को कैसे दूँगी।
हूँगी जो सेविका प्रभु-कमल-पग की हूँगी।
कभी अन्यथा नहीं करूँगी मैं न टलूँगी।
विष खाऊँगी, प्राण तजँगी, कर न मलूँगी।25।

मैं हूँ परम अबोध बालिका प्रभु बुधावर हैं।
मैं हूँ बहु दुखपगी आप अति करुणाकर हैं।
मैं हूँ कृपा-भिखारिणि प्रभु अति ही उदार हैं।
मैं हूँ विपत-समुद्र पड़ी प्रभु कर्ण-धार हैं।26।

जैसे मेरी लाज रहे मम धर्म न जावे।
देव-भाग को दनुज न बल-पूर्वक अपनावे।
जिससे कलुषित बने नहीं मम जीवन सारा।
होवे वही, निवेदन है प्रभु यही हमारा।27।

इस प्रकार चीठी लिख वे चिन्ता में डूबीं।
भेजूँ क्यों कर किसे सोच ये बातें ऊबीं।
छिपी नहीं यह बात रहेगी अन्त खुलेगी।
उग्र रुक्म से कभी किसी की नहीं चलेगी।28।

संभव है मम उपकारक को वह दुख देवे।
उसे नाश करके सरवस उसका हर लेवे।
अत: उन्होंने एक योग्य ब्राह्मण के द्वारा।
पत्र द्वारिका नगर भेजना भला विचारा।29।

क्योंकि विप्र का किसी काल में बध नहिं होता।
वह अब्याहत गति में है बहु विघ्न डुबोता।
सखियों द्वारा सब बातें पहले बतलाई।
फिर बुलवा कर उसे आप कोठे पर आई।30।

बातायन में बैठ पत्र को कर में लेकर।
झुकीं विप्र के देने को अति आतुर होकर।
दोनों कर से बसन इधार द्विज ने फैलाया।
लेने को वह पत्र, शीश हो चकित उठाया।31।

इसी काल का चित्र हुआ है अंकित सुन्दर।
देखो द्विज का भाव, रुक्मिणी बदन मनोहर।
यद्यपि धीर, गँभीर, मुखाकृति राज-सुता की।
लोचन स्थिरता, व्यंजक है उर की दृढ़ता की।32।

तदपि सामयिक, उत्सुकता, शंका, चंचलता।
अंकित है की गयी चित्र में सहित निपुणता।
शीश अचानक लज्जा-शीला का खुल जाना।
परम शीघ्रता वश सम्हालने वस्त्र न पाना।33।

पत्र-दान की तन्मयता को है जतलाता।
अति सशंकता, चंचलता है प्रकट दिखाता।
जो असावधाानता हुई थी आतुरता से।
उसको भी है वही बताता चातुरता से।34।

कसी हुई कटि, लोटा डोरी काँधो पर की।
पत्र-ग्रहण की रीति, भाव-भंगी द्विज-वर की।
यात्रा की तत्परता को है सूचित करती।
उर में नाना भाव सरलता का है भरती।35।