बर्फ़ की काट सी रगों में बेहिस जमती है
कोई कतरा ख़ून का कुछ कहता नहीं
कोई हर्फ़ ना,
ना चकता स्याही का
वो दर्द बयाँ करता है,
जब मेरी हथेली से अपने नाम की लकीरें,
वो नोच के अलग करता है
ज़ेहन में कोई बात,
कोई क़िस्सा दस्तक फिर देता नहीं
चुप्पी ज़बान से सरक के दिल में घर कर जाती है
कानों में भी गूंजता है वो चीख़ता सन्नाटा
इंसाँ अंदर से ख़ाली हो जाता है,
जैसे लोटे से राख कोई गंगा में बहाता है
न सहर का, न शब का कोई हिसाब रहता है
फ़लक फ़क़त ख़ाली, मायूस, उदास रहता है
'इश्क़' लफ़्ज़ से जैसे नुक़्ता गिर गया हो कहीं
ऐसे उस रिश्ते के मायने झटक के छूट जाते हैं
जब हम गीली लकड़ी से अपने इश्क़ को सुलगाते हैं
तब अपना कोई दूर,
बहुत दूर निकल जाता है
ऐसे जाने से इंसाँ पहले ख़ाली
और फिर खोखला हो जाता है।