दोपहर में भी गोधूलिः सूरज को हो क्या गया है ?
वह काँपता हुआ, भोर के चान्द-सा मलिन है ।
यहाँ-वहाँ अनचीन्हे धब्बे हैं ।
पेड़ की डालियों और फुनगियों पर
धुन्ध की गिलहरियाँ दौड़ रही हैं
और कँगारू पहाड़ की पीठ पर
एक काँपता हुआ बादल थिर होना चाहता है ।
यह कोलतारी सड़क
किसी मय शिल्पी की रचना-सी
जहाँ नीची वहाँ ऊँची
जहाँ ऊँची वहाँ नीची दीखती
मेरे पैरों को छलती
उस मील पत्थर से सौ क़दमों बाद
बुझते आलोक की खाई में
अचानक
लुढ़क गई है ।