छापा तिलक जनेऊ पहना
बम-बम भोले भज
बुद्धि नहीं है, एक छटंकी
रुतबा बावन गज़ ।
अहंकार के तम्बू ताने
कर्म किए सारे मनमाने
नख से शिख तक भरा द्वेष है
कैसे भला सत्य पहचाने ?
एक घाट पी रहे पानी
अब वनराजा, अज ।
अजब खेल है, गज़ब मेल है
सभी जगह अब धकापेल है
किस किस का हम दोष बताएँ
सब के हाथों में गुलेल है
दौड़ रहे हैं नंगे होकर
सारी लज्जा तज ।
कितने नियम, क़ा’इदे तोड़े
किसको मारे, कितने कोड़े,
नहीं कोई भी लेखा जोखा
सोया कौन बेचकर घोड़े
तहख़ानों पर महल बनाए
अतुलनीय सज-धज ।