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रूख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही / फ़ुज़ैल जाफ़री

रूख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
टोपियाँ रंग बदलती हैं मगर सर हैं वही

जिन के अज्दाद की मोहरें दर ओ दीवार पे हैं
क्या सितम है कि भरे शहर में बे-घर हैं वही

फूल ही फूल थे ख़्वाबों में सर-ए-वादी-ए-शब
सुब्ह-दम राहों में जलते हुए पत्थर हैं वही

नाव कागज़ की चली काठ के घोड़े दौड़े
शोबदा-बाज़ी के सच पूछो तो दफ़्तर हैं वही

बिक गए पिछले दिनों साबह-ए-आलम कितने
हम फ़क़ीरों के मगर ‘जाफ़री’ तेवर हैं वही