रूपमती-सी पावन रेवा,
बाजबहादुर-से विंध्याचल-
मचा रहे मेरे सीने में
समी-साँझ से ही ये हलचल।
पुराकाल से लेकर जब तक, जिनकी ध्वजा रही फहराती
उनकी इज्जत खतरे में है। लगे हुए ग्रह साढ़े साती
कहीं कुल्हाड़ी चले सपासप,
कहीं हथौड़े घन और सब्बल;
सूख न जाएँ स्रोत कुदरती,
सूख न जाए माँ का आँचल,
आदम हो लें आप मगर इंसानों-सा हो पाना मुश्किल।
साथ छोड़ बैठी है प्रभुजी! पत्थर पड़ी हुई ये अक्कल।
बहने या धँस जाने पर ये-
अगर उतारू हो ही जाए,
हममें नहीं कोई गोवर्धन,
उठकर दे जो जन को सम्बल।