ताकीद की थी न तुमने,
मैं सँवर जाऊँ,
सुधर जाऊँ...
नहीं पसंद था तुम्हेँ मेरा यूं कोमल होना,
यूं ही हँस देना,
यूँ ही रो देना,
किसी बच्चे को उठाकर खिलखिला देना,
किसी इंसान के संग कुछ कदम चल मुस्कुरा देना,
पहली कील ठोंकी थी तुमने,
मेरे जेहन में दुनियादारी की,
रंग दिखाए थे श्वेत / श्याम,
और आज तक के रास्तों पर शक़ कर , डगमगा उठी थी मैं...
क़दमों का हिसाब माँगा खुद से,
जवाब तुमने दिए...
फिर सिलसिला चला मुझे तराशने का,
जज्बातों की हथौड़ी से,
तर्कों की छेनी से,
मैं संवरने लगी,
उस तरह जैसे दुनियादार दिखते हैं....
हर वार सबक होता,
मन खुश और दिल रोता,
अख्ज थे तुम,
जो छीन बैठे मेरी मासूमियत,
मुझे ना बदलना था ना बदली ...
फिर मेरे विधाता तुम थक गए,
तुम्हारे हाथ रुक गए,
लो बन गई मूरत तुम्हारे मन सी,
आधी तराशी. आधी छांटी,
कुछ जख्मी सी,
कुछ अनगढ़ सी,
आधी मानवी,
आधी पाषाणी.....
रहने तो अब अपने अह्सानात ,
अब मैं ढालूंगी खुद को,
जहाँ छोड़ गए हो,
वही से शुरू...
कि फिर बदलूंगी पाषाण को,
मानवी में..
क्योकि मुझे तुमने जब जब तराशा....
मैं सिर्फ चूर चूर ही हुई....