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रूप-प्रतिरूप-अपरूप / दिनेश कुमार शुक्ल

जागता
तो होता वह
जगत,
सोता
तो होता
टूटी नींद
पसीने में लथपथ

हॅंसता
तो होता वह विद्रूप,
रोता
तो धरता
विदूषक का रूप

उड़ता
तो बन जाता
थकी-सी उड़ान का
टूटा हुआ पंख,
होता अकेला
तब होता वह असंख्य

वह जब भी गाता
होता संसार का
सबसे प्राचीन मौन मुखर,
नाचता
तो डालता
सृष्टि के प्रवाह में
बहुत गहरी भॅंवर

आता वसन्त
तो होता वह
कॉंटों में खिला फूल,
समय की सन्धि पर छा जाता
बनकर ख़ुद
पृथ्वी के खुरों से उड़ी धूल

चुप रहता
तो हो जाता वह भी
सरकारी गवाह
इसीलिए बोलता रहता वह
बनकर भी
शब्दों का निरर्थक प्रवाह

उठता
तो होता वह
फटता हुआ कगार
ढहता
तो हो जाता
अधबने घर की दीवार

तैरता तो बन जाता
बाढ़ का फेना और खर-पतवार
डूबता तो होता वह
कत्ल की रात का
गहन अन्धकार

बजता
तब होता वह सन्नाटा,
भरता जब साँस
तो होता वह
सागर का ज्वार और भाटा

करता जब याद
तब होता वह
पुरखों का प्रतिबिम्ब,
विस्मृति में
झूलता
कालसर्प-सा प्रलम्ब

वह बन जाता है समय
बचकर जब भागता सरपट,
थमता
तब होता वह
पर्वत के माथे पर
चिन्ता की सलवट

थकता
तो होता वह
नदी की तलहटी में सोता जल,
होता जब उदास
तो गहराता
बन जाता
दुर्गम-पाताल-अतल

जीतता
तो होता ख़ुद
उजड़ा हुआ खेत,
पराजय में
उड़ता आकाश तक
होकर भी रेत

जब भी
वह होता
तब वह नहीं होता वह,
और जब नहीं होता
तो अपनी रिक्ति में
भरता अनवरत
कितने ही रूप,
प्रतिरूप, अपरूप