धूप और प्रकृति से दूर
रोशनी और कलाओं से दूर
दूर जीवन और प्रेम से,
देखते-देखते वर्ष बीत जाते हैं यौवन के ।
निष्प्राण हो जाती हैं
जीवन्त भावनाएँ
सब सपने बिखर जाते हैं इधर-उधर।
इसी तरह गुज़र जाएगा जीवन
अनाम और निर्जन इस प्रदेश में
अज्ञात और अपरिचित इस भूमि में
ग़ायब हो जाता है जैसे बादल का टुकड़ा
धुँधले और तेज़हीन आकाश में
पतझड़ के अनन्त अन्धकार में
(1848-1849)