जब भी पडे़गी पहली बूंद
महक उठेगा रेगिस्तान
दिव्य गंध से
कोई उपमा नहीं
कोई सानी नहीं
इस दिव्य गंध का
मिलती हो शायद
गाय दुहते समय उठती
दूध की बाल्टी की गंध से
गेंहू की कच्ची बाली के दूध की गंध से
कुचली गयी खींप के रस की गंध से
साम्य चाहे कोई न हो
किन्तु जब भी उठती है ये गंध
दिव्य होते हुए भी
उतनी ही मानवी होती है
सिहरा देती है तन
हरखा जाती है मन
भर जाती है सपनो में रंग
याद दिला जाती है
हल, बीज, भरी बुखारी
और भरी बुखारी पर बंधे
पचरंगे साफे का ठसका।