गंगापार
छाटपार
आकाश में सरकता सूरज
जिस समय गंगा के ठीक वक्ष पर चमक रहा था
बालू को बांधने की हरकत में
कलाकारों का अनंत आकाश
धरती पर उतरने की कोशिश कर रहा था
धरती
जिस पर आकाश से गिराये गये बमेां की गंूज थी
जहां अभी अभी सद्दाम को फांसी दी गयी थी
जहां निठारी कांड से निकलने वाले मासूम खून के धब्बे
अभी सूखे भी नहीं थे
काशी के कलाकारों ने अपनी आकृतियों में
एक रंग भरने की कोशिश की थी
लगभग नीला रंग
इस रंग में छाहीं से लेकर निठारी तक का ढंग था
अस्सी से लेकर मणिकर्णिका तक की चाल थी
सीवर से लेकर सीवन तक का प्रवाह था
मेढक से लेकर मगरमच्छ तक की आवाजाही थी
यहां रेत में उभरी आकृतियों के बीच
हर कोई ढूंढ रहा था अपनी आकृति
और हर कोई भागता था अपनी ही आकृति से
यहां सब था
और सबके वावजूद बहुत कुछ ऐसा था
जो वहां नहीं था
जिसे कलाकारों की आंखों में देखा जा सकता था
आंखें जो नदी के तल जैसी गहरी और उदास थी
जिसमें गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक का विस्तार था
जहां स्वर्ग की इच्छा से अधिक नरक की मर्यादा थी
यह मकर संक्राति के विल्कुल पास का समय था
जहां यह पार उदास था
तो वह पार गुलजार
इस पार सन्नाटा था
उस पार शोर
आज इस सन्नाटे में एक संवाद था
लगभग मद्धिम कूचियों में सरकता हुआ संवाद
जिसमें बार बार विश्वास हो रहा था
कि जब कभी उदासी के गहन अंधकार के बाहर निकलने की बात उठेगी
जो कि उठेगी ही
बहुत याद आयेंगे ये कलाकार
काशी कैनवस के ये कलाकार
गंगापार
छाटपार ।
बनारस में प्रत्येक वर्ष 19 जनवरी को गंगापार के इलाके में मूर्तिकार मदनलाल के संयोजन में अपने गुरू मूर्तिकार राम छाटपार की स्मृति में युवा कलाकारों द्वारा रेत में आकृतियों का निर्माण किया जाता है ।
रचनाकार : अक्टूबर 2007