छुक-छुक छुक-छुक रेल चली
हू-हू करती रेल चली ।
बस्ती इधर, उधर जंगल
चुप्पी इधर, उधर हलचल
बालू इधर, उधर दलदल
जमना इधर, उधर चम्बल
करती ठेलम-ठेल चली ।
हू-हू करती रेल चली ।।
बस्ती हो या वीराना
अपना हो या बेगाना
दाना हो या दीवाना
फ़र्क नहीं इसने जाना
सबसे करती मेल चली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।
कभी नदी-सी बहती है
कभी कहानी कहती है
कभी खड़ी ही रहती है
शीत-घाम सब सहती है
आह नहीं मुँह से निकली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।
पगली-सी चिल्लाती-सी
रह-रह शोर मचाती-सी
दिल की आग छिपाती-सी
हँसकर धुआँ उड़ाती-सी
तन पर सब-कुछ झेल चली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।
चलो रेल के संग चलें
बनकर सदा दबंग चलें
मन में लिए उमंग चलें
बनकर वायु-तरंग चलें
चलो कि जैसे रेल चली
करती ठेलमठेल चली ।
छुक-छुक करती रेल चली ।।
आकाशवाणी के लिए 1967 में लिखी गई।