दोनों हाथ खोलके
अपनी बाहें फैलाये
वीरानियों का सीना चीर कर
राहें बिछाए जड़ी रहती हैं
ज़मीन की हथेलियों पर
क़िस्मत की रेखाओं की तरह
रेल की पटरियाँ पड़ी रहती हैं
मुसाफिर आते जाते रहते हैं
इन पटरियों की
उंगलियाँ पकड़ के
कुछ राहगीर
ऐसे भी होते हैं
जो अपने घर
पैदल भी जाते हैं
और चलते-चलते
कुछ मुसाफिर
इन्हीं पटरियों का
तकिया बना कर
सो जाते हैं
फिर कोई बे रहम इंजन
इनके जिस्म से होकर
गुज़र जाता है
राहगीर
बदन से इजाज़त लिए बग़ैर
फ़ज़ाओं में बिखर जाता है॥