रेवा से पहले रेवा के पानी के संगीत से
हुआ अपना आत्मीय साक्षात्कार
फिर दरस-परस कूल-कछार से
रेवा ! किलक-हुलस बहती है
कहती है : जीवन ! जीवन ! जीवन !
जीवन से बड़ा नहीं कोई उद्गार
नहीं कोई चमत्कार
जीवन ही रचता है अपना प्रिय संसार
रेवा कुलीन :
जिसके कूल भरे हैं
जीवन की गरिमा-महिमा से
सुख का अन्तरा
हर रहा जन-जीवन का संघर्ष ताप
रेवा सदानीरा
जिस की कुशल-क्षेम के लिए
आत्मा अधीरा
जन-गन की !
अमरकण्टक से निष्कण्टक निकल
रेवा लगती है धरती के कण्ठ से
फूट पड़ा मीठा जलगीत
प्यासे हलक जिसे पी-पी कर
रचते हैं पानी का महाकाव्य
जल-रव रेवा का बहुत मोहता मन
गुल्म-लता-तरु गाते हैं जिसे राग देश में
घास अपने मधुर हरे आलाप में सुनाती है चारुकेशी
विंध्य-सतपुड़ा के आँगन में बहता है रेवा का संगीत
सुन कर जिसे धान का दूध होता है गाढ़ा
और वनस्पतियों की बाढ़ बनी रहती है
दिशाओं में भी रहता है जिसका उछाह
रेवा का प्रवाह पी कर हँसता है सूरज धूप-हँसी
उतारता अपनी परकम्मा की थकान
घाटी की हवा सीखती है रेवा से बहना
रेवा ही देती है अपने अंचल को अन्न-जल
रेवा का गुणकारी चरित
लोक गीतों में अंचल-रीतों में देख-सुन
देता है रेवा को बहुत आदर
खम्भात में अरब सागर !