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रोज़ / अरविंदसिंह नेकितसिंह

रोज़ तड़के ही
लग जाता हूँ
ऐसी दौड़ को जीतने में,
जिसकी कोई मन्ज़िल नहीं ।
 
काँटेदार रास्ते;
हर मोड़ पर खाई
इनसे बचने की कोशिश कर
दौड़ता हूँ, दौड़ता रहता हूँ...
 
पर नंगे पाँव !
पट्टी नेत्रों पर !!
कब तक,
बचूँ कब तक ?
आखिर धँस ही जाता है
गिर जाता हूँ...
 
फिर शाम को,
थके हारे,
अपने दर्द लिए
घर को लौटकर,
सोने का प्रयास होता है
दूसरे दौड़ की तैयारी में ।