राजकोष भरकर भी क्यों है
रीता ही कश्कोल ।
कितनी सदियाँ बीतीं अब तक,
फूँके कितने मंत्र ।
राजमहल के किन्तु न होते,
ख़त्म कभी षड़यंत्र ।
उदर भूख के मारे खोजें,
रोटी का भूगोल ।
पोर-पोर में पीर बसी है,
हृदय उठा सैलाब ।
श्वेत रंग के बगुले भी अब,
रोज़ बढ़ाते दाब ।
घूरे पर है भाग्य देश का,
रोटी रहा टटोल ।
राजकाज का वैभव पाने,
रचते कुटिल प्रपंच ।
रजत वर्क में झूठ परोसें,
लम्बे-चौड़े मंच ।
माहुर गंगाजली बताएँ
कहते पी मधु घोल ।