Last modified on 1 सितम्बर 2018, at 14:04

रोटी जैसे हस्ताक्षर / अशोक कुमार पाण्डेय

रोटी जैसे गोल अक्षरों में
माँ करती है हस्ताक्षर

चले गए पिता
ऐसे जैसे उठ कर चले जाते थे दफ्तर
माँ पाँव बनी उनके
पर लौटा नहीं पाई
हम विदा के शब्द कहते गूंगे हुए
उसने आँसुओं का अर्घ्य दिया निःशब्द
और लौटी अकेले

काग़ज़ों का एक जंगल था जहाँ निषिद्ध ही रहा उसका प्रवेश
वह लौटी तो घर में ही नहीं उन जंगलों में भी जाना पड़ा उसे
हम कवच बनने की नाकाम कोशिश में रहे
न हमें पता था न कभी पिता ने की कोशिश जानने की
कि माँ कमजोर नहीं थी, बनाई गयी थी
उसकी कमज़ोरी हम सब की सुविधा थी

वह काग़ज़ों के जंगल में गयी तो डगमगाए पाँव
आखेटकों को देख सिहरे उसके कदम
कांपते हाथों से उठाये उसने धनुष, भींगी आँखों से सम्भाले तूणीर
वह चली धीमे क़दमों से जैसे जून की उमस भरी शाम चलती है हवा कभी कभी
वह चली और चलती गयी जैसे जुलाई के पहले दिनों की रिमझिम बारिश
चावल बीनने के लिए बने चश्में से उसने चीन्हें अक्षर और उनके बीच के कंकर पत्थर
अँगूठा लगाने को कहती आँखों का व्यंग्य देखा उसी चश्में के भीतर से
देखा सहानुभूतियों का चक्रव्यूह
देखा पिता की तस्वीर की ओर एक बार और फिर डूब कर उन कागजों में
रोटी जैसे गोल अक्षर दर्ज किये जैसे तीर कोई अमोघ
उस क्षण जो आँसू थे उसकी आँखों में
वे सिर्फ़ दुःख के नहीं थे