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रोते हैं पूर्वज / मदन गोपाल लढ़ा


अब नहीं बचा है अंतर
श्मसान और गाँव में।

रोते हैं पूर्वज
तड़पती है उनकी आत्मा
सुनसान उजड़े गाँव में
नहीं बचा है कोई
श्राद्ध-पक्ष में
कागौर डालने वाला
कौवे भी उदास है।