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रोशनी की लतर / केशव

मैंने देखा है
तुम्हारे अधरों पर
उगती इच्छा को
गदरायी हुई घाटी का संगीत जैसे
एक बूँद बनकर
चू पड़ा हो
उस तलहीन गहराई में
जैसे तितली ने
पंखों में---
भर लिया हो समूचा आकाश
समर्पण की अधमुँदी खिड़की
पर जैसे चढ़ आई हो
धूप की लतर अकस्मात

सच दोस्त
मैने
महसूस किया है
अपने अधरों पर
सुलगते समर्पण को
जिसके सामने
तमाम-तमाम सुख
छोटे पड़ जाते हैं
जिसकी जड़ों को
कोमल पंखों जैसे अहसास
सींच जाते हैं

पर दोस्त
तुमने ऐसा क्यों चाहा
कि मेरे तमाम रास्ते
आकर लिपट जायें
तुम्हारी उँगलियोँ से
इसलिये कि मात्र
तुम ही हो जाओ
मेरा गंतव्य
मैं बन जाऊँ
तुम्हारे लिए
    रोशनी की लतर
जिसके सहारे तुम
मुझे छोड़

अँधेरा-दर-अँधेरा
     पार कर जाओ

मैं मानता हूँ
तुम्हरा ऐसा चाहना
नहीं है गलत
यह तुम्हारी नीयत नहीं
है नियति
पर तुम्हारी नियति बनकर ही
अगर मैं रह जाऊँ
तुम्हारे पास
तो मेरे भीतर
उस नदी का क्या होगा
बहना ही जिसका धर्म है
पाकर
फिर-फिर खोना ही
जिसका मर्म है