Last modified on 4 जुलाई 2011, at 19:03

रोशनी की साँकल / शलभ श्रीराम सिंह

हँसती सुबह !
लहराते नीले ताल !
गुलाब की पंखुरियों में बन्द चावल !
आकाश - ढकी दो पहाड़ियाँ !

रात के गर्म सिलवटी बिस्तरे पर
सोया हुआ बच्चा
नींद में सिसकियाँ ले रहा है !
रोशनी की साँकल हिल रही है !

शाम से ही
उबल रहे हैं दो महासागर !
बरस रहे हैं दो सावन !
(1964)