हो सके तो
लौटकर आना नहीं तुम
तुमको अंतर
में सहेजे रो रहा मन
नेह का
विस्तार मेरे
तुम समाहित कर न पाए
मरुथली
मन पर कभी तुम
मेघ बनकर झर न पाए
हाँ ! तुम्हारे
छोड़कर जाने से मेरा
एक सूखे
वृक्ष जैसा हो रहा मन
ओढ़कर
प्रिय मौन चादर
सत्य को झुठला रहे हैं
मन-पटल
पर चित्र अपने
दिन व दिन धुँधला रहे हैं
लाख समझाता
हुँ लेकिन मन न माने
तुमको अंतर
से निरंतर खो रहा मन
तुम कभी
सुलझी नहीं थीं
बहुत उलझा प्रश्न थीं तुम
क्या बताते
क्या छिपाते
मन-नगर का स्वप्न थीं तुम
टूटने की
शक्ति फिर से कर के संचित
आस के
कुछ बीज उर में बो रहा मन