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रौशनी के चंद दीपक हम जलाएँगे ज़रूर / राम नाथ बेख़बर

रौशनी के चंद दीपक हम जलाएँगे ज़रूर
तीरगी के पाँव इक दिन लड़खड़ाएँगे ज़रूर।

हैं फ़क़त काँटें ही काँटे जिंदगी की डाल पर
हाँ, मगर हम फूल बनकर मुस्कुराएँगे ज़रूर।

पालते हैं जिन परिंदों को अभी हम लाड़ से
पर निकलते एक दिन ये दूर जाएँगे ज़रूर।

हैं जमीं में दफ़्न जो अहले वतन के वास्ते
फिर ज़मीं की कोंख से वे लौट आएँगे ज़रूर।

लौटती किरणों को देखा तो हमें ऐसा लगा
शाम ढ़लते हम भी घर को लौट जाएँगे ज़रूर ।

खाद पानी और माली का मिला ग़र प्यार तो
शुष्क डाली पर किसी दिन फूल आएँगे ज़रूर।