Last modified on 9 जनवरी 2011, at 14:22

लकीरें काटती हैं / केदारनाथ अग्रवाल

लकीरें काटती हैं लकीरों को
वक्र होकर
उलटकर
मुँह से
पूँछ से
पेट से
आदमियत से वंचित
पशुत्व की प्रतीक
स्रष्टा को सरापतीं
फटे सूर्य की दुनिया में

रचनाकाल: ०६-०८-१९६७