लगने जैसा लिखा नहीं कुछ,
बहुत दिनों से।
कर न सका स्वयत्त ठीक से
कभी स्वयं की ही भाषा को,
मूर्त्त न कर पाया अनुभूते क्षण की
आशा-अभिलाषा को।
कोरे थान सफेद खदे के
पड़े रह गए धुले नाँद में,
रँगने जैसा रँगा नहीं कुछ
बहुत दिनों से।
अपराधी होकर भी मुतलक,
रहा नहीं दो दिन कारा में,
जीवन जिए न हमने औघट
या घाटों धँसकर धारा में।
आमादा ये वो, तो मैं भी
लाँग बाँधकर कमर कसे था;
मरने जैसा मरा नहीं पर,
बहुत दिनों से।
बदल गए हैं अब मुहावरे,
जीवन के ही नहीं मौत के,
अर्थ नहीं रह गए वही अब,
पति-पत्नी के या कि सौत के।
रखे रह गए काग़ज़-कलमे
टेबिल की निचली दराज में,
लिखने जैसा लगा नहीं कुछ
बहुत दिनों से।