♦ रचनाकार: अज्ञात
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लग रही आस करूँ
भजन करूँ और ध्यान धरूँ, छैया कदमन की मैं॥
सदा करूँ सत्संग मण्डली सन्त जनन की मैं॥ लग.
पलकन डगर बुहार रेणुका ब्रज गलियन की मैं।
अभिलाषी प्यासी रहें अँखियां हरि दरसन की मैं।
भूख लगै घरे-घर तै भिक्षा करूं द्विजन की मैं।
गंगाजल में धोय भेट धरूँ नन्दनन्दन की मैं॥
शीतल प्रसादहि पाय करूँ शुद्धी निज मन की मैं।
सेवा में मैं सदा रहूँ नित ब्रज भक्तन की मैं॥
ब्रज तज इच्छा करूँ नहीं बैकुण्ठ भवन की मैं।
‘घासीराम’ शरण पहुँचे गिरिराजधरन की मैं॥