होने में तब सम्मुख आज
नाथ! सताती मुझको लाज।
प्रांगण में है हुई जनो की भीड़ अपार
भरा शंख-रण में नभ का है हृदयागार
सजता है पूजा का साज
नाथ! सताती मुझको लाज।
मुझे सामने पा न करो जो कुछ अनुमान
समझे मुझको कुटिल तथा दम्भी अज्ञान
इसमें कुछ भी नहीं अकाज
नाथ! सताती मुझको लाज।
मंदिर-पथ में मुझे उठा जो कोई हाथ
पूछ बैठता-"कहाँ”-विनत हो जाता माथ,
पुनः यहाँ तो भला समाज
नाथ! सताती मुझको लाज।
जब संध्या को हट जावेगी भीड़ महान
तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगी निज गान
नहीं तीसरे का कुछ काज
नाथ! सताती मुझको लाज।
शून्य-कक्ष के अथवा कोने ही में एक
करूँ तुम्हारा बैठ नीरव अभिषेक
सुनो न तुम भी यह आवाज
नाथ! सताती मुझको लाज।
-सरस्वती, अप्रेल, 1920