Last modified on 29 जनवरी 2010, at 11:34

लड़कियाँ / देवमणि पांडेय

लड़कियाँ अब और इंतज़ार नहीं करेंगी
वे घर से निकल जाएँगी
बेख़ौफ़ सड़कों पर दौड़ेंगी
उछलेंगी, कूदेंगी, खेलेंगी, उड़ेंगी
और मैदानों में गूँजेंगी उनकी आवाजें
उनकी खिलखिलाहटें

चूल्हा फूँकते, बर्तन माँजते और रोते-रोते
थक चुकी हैं लड़कियाँ
अब वे नहीं सहेंगी मार
नहीं सुनेंगी किसी की झिड़की
और फटकार

वे दिन गए जब लड़कियाँ
चूल्हों-सी सुलगती थीं
चावलों- सी उबलती थीं
और लुढ़की रहती थीं कोनों में
गठरियाँ बनकर

अब नहीं सुनाई देंगी
किवाड़ के पीछे उनकी सिसकियाँ
फुसफुसाहटें और भुनभुनाहटें
और अब तकिये भी नहीं भीगेंगे