लड़कियाँ जवान होते ही
खुलने लगती हैं
खिड़कियों की तरह
बाँट दी जाती हैं हिस्सों में
आँखें, मन, ज़ुबानें , देहें , आत्माएँ !
इनकी देहें
बहियों-सी घूमती हैं घर
दर्ज़ करती
दवा, दूध,
बजट और बिस्तर का हिसाब I
इनकी आत्माएँ
तहाकर रख दी जाती हैं
संदूकों में
उत्सव पर पहनाने वाले कपड़ों की तरह I
इनके मन
ऊँचे-ऊँचे पर्वत,
जिस पर
बैठा रहता है,
कोई धुँधलाया हुआ पुरुष
तीखे रंगों वाला झंडा लिए I
इनकी आँखें
बहुत जल्द
कर लेती हैं दृश्यों से समझौता,
देखती हैं
बस उतना
जितना
देखने की इन्हें इजाज़त होती I
पूरी हिफ़ाज़त से रखती हैं
वो सपने
जिनमे दिखने वाले चेहरे
इनकी कोख से जन्मे बच्चों से बिलकुल नहीं मिलते I
इनकी ज़ुबाने
सीख लेती हैं -
मौन की भाषा,
कुल की मर्यादा,
ख़ुशी में रो देने
और
ग़म में मुस्कराने की भाषा,
नहीं पुकारती ये -
वो लफ्ज़,
वो शब्द,
वो नाम
जिनके मायने उन रिश्तों से जुड़ते हैं
जो इनके कोई नहीं लगते
इनकी तक़दीरें
नहीं चुनती रास्ते,
चल पड़ती हैं दूसरों के चुने रास्तों पर,
बुन लेती हैं रिश्ते
चुने हुए रास्तो की छाया से,
कुएँ से,
दूसरों के चुने हुए ठीयों से ,
इनकी तक़दीरे मान जाती हैं-
नहीं ढूँढ़ेंगी
उन मंज़िलों को
जो इनकी अपनी थी I
और
जिन्हें ये उन रास्तों पर छोड़ आई हैं
जो
इनकी नियति के नहीं स्वीकृति के रास्ते थे I
इनकी ज़िंदगियाँ -
ख़र्च करती हैं दिन, घंटे और साल
दूसरों के लिए,
बचा लेती हैं,
बस कुछ पल अपने लिए I
इन्हीं कुछ पलों में
खुलती हैं खिडकियों-सी
हवा धूप, रौशनी के लिए I
और टाँग दी जाती हैं
घर के बाहर नेमप्लेट बनाकर I
इनके वजूद निर्माण करते हैं
आधी दुनिया का
ये -
बनाती हैं
भाई को भाई ,
पिता को पिता,
और
पति को पति,
और रह जाती है सिर्फ़ देहें , आत्माएँ, जुबानें, और आँखे बनकर I
ये
जलती हैं अँगीठियों-सी,
और तनी रहती है
गाढ़े धुएँ की तरह
दोनों घरों के बीच मुस्कुरा कर I
इनके वजूद
होते हैं
वो सवाल
जिनके जवाब उस आधी दुनिया के पास नहीं होते I
ये -
तमाम उम्र समझौते करती हैं
पर मौत से मनवा के छोडती हैं अपनी शर्ते
ये अपने सपने, मंज़िलें, रिश्ते
सब साथ लेकर चलती हैं
इनकी क़ब्र में दफ़न रहते हैं
वो सपने,
वो नाम
वो मंज़िलें
जिन्हें इनकी आँखों ने देखा नहीं
ज़ुबाँ ने पुकारा नहीं
देह ने महसूसा नहीं
ये अपने पूरे वजूद के साथ मरती हैं !