झर झर झर
झर रहे हैं पत्ते
सुनहरी फुहार में
शरत का अभिषेक करते हुए
गिन्नियों की तरह झरते हुए
उतर रहे हैं वृक्षों के वस्त्र, पल-पल
स्ट्रिपटीज़ करती हुई नर्तकी की तरह
अनावृत हो रही है पृथ्वी
शर्म से पीली और फिर सुर्ख़ होती हुई
उजागर हो रही है एक नयी सुन्दरता
प्रकट हो रही है वृक्षों की वस्त्रहीन देह
हेमन्त के अभिसार के लिए
वसन्त की सम्भावनाओं को
अपने भीतर छिपाए