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लपटों में मनुष्यता / ओमप्रकाश सारस्वत

यह कैसी प्रथा है
जो जीवन को
जलाती है
और मौत को
जियाती है!!

एक ही रूपकंवर
देवराला को
चिता कर गई
देखते-ही-देखते
मनुष्यता को
लपटों में धर गई

सारी जनता खड़ी-खड़ी
तमाशा देखती रही
उसके सतीपन से
अपने हाथ सेकती रही

मेरे शंकर !
मानव कब छोड़ेगा
जलती-देहों की
होली देखना
और विवश सतियों की लपटों-से
अपने हाथ सेकना