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लय: विलय / पुष्पिता

प्रेम में
साँसें समझ पाती हैं
साँसों की भाषा
जो देह की सिहरन से लेकर
कपोलों की लाली तक
एक है।

मन की देह के बीच
अपनी लिपि में
अपने लय में
अपने शब्दों में
अपने अर्थ में
लय होगी विलय।

एकांत में
राग की सुगंध
और सुगंध का अंगराग।

अपनी गंगा में
जीती हूँ तुम्हारी यमुना
जैसे
अपने कृष्ण में
तुम मेरी राधा।

प्रणय चाहता है
अपनी देह-गेह में
प्रिय का हस्ताक्षर
संवेदना की जड़ें
पसरती जाती हैं भीतर-ही-भीतर
कि देह-माटी
पृथ्वी के समानांतर
अपना वसंत जीने लगती है।

प्रणयाग्नि से तपी देह
हो जाती है स्वर्ण-कलश
अमृत से पूर्ण।

प्रणय
देह की ईश्वरीय चौखट पर
समर्पित करता है अपना सर्वस्व
जैसे विलीन होते हैं
पंच तत्वों में
पंच तत्व...।