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लहरों के चिन्ह... / विमल राजस्थानी


बन्धु ! व्यर्थ रोते हो
इस शश्वत ऊसर में छवि-मुक्ता-कण क्यों बोते हो ?
यह नीरव निशीथ, तारों-
की झिलमिल-झिलमिल छैंया
निबल, निरीह, वक्ष पर पसरा-
कुहरा दे गलबहियाँ

नभचुम्बी लहरें सागर की
छुई-मुई-सी नइया
असमंजस में पड़ा विलखता-
डरा-डरा खेवइया
लहर तराशो, कधों पर पतवार व्यर्थ ढोते हों
बन्धु ! व्यर्थ रोते हो

फूल तितलियों का, अलियों-
का भार वहन करते हैं
बिना याचना, रंध्र-रंध्र में-
सुरभि मदिर भरते हैं

आता है वातास, उड़ा ले-
जाता है फल-फूलों को
रह जाती है शेष लहर-
की स्मृतियाँ कूलों को
ये लहर के चिह्न भला इनमें मन क्यों खोते हों
बन्धु ! व्यर्थ रोते हो

जीवन को, जीने के ढँग को
यों ठोकर मत मारो
जो भी चना-चबेना उससे-
अपनी भूख सँवारों

प्यास लगे तो मत आँसू को,
सागर को ललकारों
फूलों पर ही नहीं, शूल-
पर भी तुम तन-मन वारो
व्यर्थ लिजलिजेपन से अपनी गैरत क्यों धोते हो ?
बन्धु ! व्यर्थ रोते हो

यह नाटक का मंच
यहाँ पर्दे उठते-गिरते हैं
अधरों पर स्मिति, आँखों-
में हम आँसु भरते हैं
सुख स्वागत पाता, दुख-
का भी अभिनन्दन करते हैं
फूलों-सा खिलते हैं
पीले पत्तों-सा झरते हैं
श्रृंगारित होते, शहनाई बजती, क्रन्दन होता
कन्धों पर चढ़ जाते हो तुम, लपटों पर सोते हो
बन्धु ! व्यर्थ रोते हो