Last modified on 24 अप्रैल 2019, at 12:39

लहू की पुकार / बाल गंगाधर 'बागी'

क्यों इतना बेबस और लाचार रहा, मेरा घर?
याद है कितनी रात बेचिराग़ रहा, मेरा घर?
कई जिस्म का श्मशान रहा, मेरा घर?
चाँद रात न आया, जब नीलाम हुआ मेरा घर

सिसकती माँ के सीने से लगी, रोने लगी
देह के खून को वह, आंसुओं से धोने लगी
उसके शरीर के ज़ख्मों से, लहू जारी था
मेरे दरवाजे की ज़मीं, खून में नहाने लगी

चीख़ की गुहार लगी, लहू की पुकार से
गिरते थे पत्थर के टुकड़े, उसकी शलवार से
खून में नहाये जैसे, तीर व तलवार से
बोलती दुनिया से कैसे, अपनी जुबान से

थरथरा रहा था बदन, याददास्त खोने लगी
फटे कपड़े में ढकी भी, न उसकी लाज रही
कटी छाती यूं झरने की तरह, बह निकली
जिसकी धार से, दुनिया है ये आबाद हुई

वह उठ नसकी गिरते ही, बेहोश हो गई
सवर्ण लड़कों की फिर, पहचान खो गई
अब लुटी आबरू को, कौन लौटायेगा?
जो आबाद आसमां तले, बर्बाद हो गई