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लाचार युधिष्ठिर छी / मार्कण्डेय प्रवासी

 
आनक ऐंठ गिलास माँजिक’
हमर द्रौपदी जीबै छथि।
हम अज्ञातवास-कालक लाचार युधिष्ठिर छी।
अर्जुन वृहन्नला कहबै छथि।
भीम बिलाइ बनल छथि
नकुल तथा सहदेव-
दुर्दिनक ज्चालामे धधकै छथि।
अनकर ठकुरसोहातीमे-
लागल रहैत अछि राजा-मन
हम देवताविहीन जंगलक भुतहा मंदिर छी।
पासा पर सौभाग्य चढ़ा क’
हमर धर्म हारल अछि
हारल शौर्य, सत्य हारल
सत्कर्म हमर हारल अछि
हमर पराक्रम गोपनीय अछि,
हमर तेज सूतल अछि,
हम दिन-राति चलैत रहै छी, तैयो सुस्थिर छी।
आदर्शे अभिशप्त भेल अछि
हम समयक मारल छी
हम मृगेन्द्रता रखितहुँ
अपने मनसँ धिक्कारल छी
तीन-धनुष गाछ पर राखि क’
खाली हाथ रहै’ छी,
हम विराटमे लीन, दीन, लाचार युधिष्ठिर छी !